कोशी तटबंधों के बीच बसे नागरिक - भारतीय गणराज्य की सौतेली संतानें?
अनिन्दो बनर्जी
पिछले दिनों १५ वीं लोकसभा के चुनावों की सरगर्मी भले ही पूरे देश में छाई रही हो, देश के कई इलाके ऐसे भी थे जहाँ चुनावी प्रक्रियाओं के दौरान अलग तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं. कोशी नदी के तटबंधों के बीच अवस्थित लगभग ३८० गाँवों की गिनती भी ऐसे ही इलाकों में की जा सकती है जहाँ के निवासियों ने इन चुनावों के दौरान अपने इलाके के पांच दशकों की उपेक्षा के मुद्दे पर एक विशेष प्रक्रिया का संचालन किया. विकास के हस्तक्षेपों से चरम रूप से वंचित कोशी के तटबंधों के बीच बसे विभिन्न गाँवों के नागरिकों ने चुनावों के दौरान अपने पांच दशकों के अलगाव के मुद्दे को एक जनघोषणापत्र के ज़रिये ज़ाहिर किया. यह जनघोषणापत्र कोशी क्षेत्र के हजारों नागरिकों की समस्याओं तथा विकास की आकाँक्षाओं की अभिव्यक्ति का नतीजा था, जिसके संकलन में कई स्वेछासेवी संस्थाओं का योगदान रहा. लोगों की यह प्रतिक्रिया बेवजह नहीं थी - पिछले पांच दशकों से कोशी के तटबंधों के बीच कैद गाँवों के १० लाख से भी ज्यादा नागरिकों की ज़िन्दगी आज भी मुख्यधारा से अलगाव का ऐसा उदाहरण बना हुआ है जिसकी तुलना ढूंढ पाना मुश्किल है.
इसी प्रकार के कई मुद्दों को १५ वीं लोकसभा के चुनावों के ठीक पहले एक 'जनघोषणापत्र' के रूप में संकलित करने की कोशिश की गई. चुनावों से ठीक पूर्व तटबंधों के अन्दर के कई गाँवों में जनसभाएं की गईं जिनमें अलगाव के मुद्दों पर व्यापक चर्चा के अलावे चुनाव के प्रत्याशियों तक अपनी मांगों को पहुँचाने तथा उनका रूख समझने की तैयारी भी की गई. इन जनसभाओं के दौरान गाँवों के लोगों के द्वारा इस मुहिम को स्थानीय स्तर पर आगे ले जाने की दिशा में रणनीतियाँ भी तय की गईं. जनसभाओं के दौरान कई नए मुद्दों का भी पता चला. सुपौल के ढोली पंचायत के मुखिया व कोशी मुक्ति संघर्ष समिति के नेता श्री रामप्रसाद मंडल ने हाल के वर्षों में सुपौल में प्रारंभ किये गए जलविद्युत परियोजना द्वारा दिए गए मुआवजों के निर्धारण में पुनः तटबंधों के अन्दर के निवासियों की अवहेलना की बात उठाई. कई गाँवों के लोगों ने कोशी के तटबंधों के अन्दर बसे गाँवों की स्थिति को शाश्वत आपदा का दर्जा दिए जाने की मांग की. एक अन्य महत्वपूर्ण मांग तटबंध के अन्दर के संपूर्ण इलाके को एक अविभाजित लोकसभा क्षेत्र के रूप में निर्धारित करने की थी, ताकि तटबंध के अन्दर के लोगों के प्रति राजनैतिक दलों की दिलचस्पी व जवाबदेही बढ़ सके.
आज स्थिति यह है की इन समृद्ध परिवारों में अधिकांश कोशी की लहरों में अपनी संपत्ति खोकर फकीरों की ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर हैं. इनमे से कई अपने पूरे परिवार के साथ दूसरे शहरों का रूख कर चुके हैं जहाँ बड़ी मशक्कत के बाद उन्हें दो जून की रोटी नसीब होती है. प्रखंड के कई गांवों गाँवों लोग आज भी १९९३ में आये भीषण बाढ़ को याद कर काँप जाते हैं जिसने कई सम्पन्न किसानों की ज़मीन को बालू के ढेर में बदल दिया.
सुपौल जिले के बसंतपुर, किशनपुर, सरायगढ़ भपटियाही, निर्मली, सुपौल व मरौना प्रखंडों, दरभंगा के किरतपुर प्रखंड, मधुबनी जिले के लौकाही, घोघरडीहा व मधेपुर प्रखंड तथा सहरसा जिले के नौहट्टा, महिषी, सिमरी बख्तियारपुर व सलखुआ प्रखंडों में तटबंधों के भीतर अवस्थित अधिकांश गाँवों के निवासियों को आजादी के साठ सालों के बाद भी अपनी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्त्ति के लिए कोशी की निरंतर बदलती धाराओं को पार कर कम से कम १० कि०मी० दूर जाना पड़ता है. आज की तारीख में कोशी क्षेत्र के ज़्यादातर प्रखंडों में तटबंधों के अन्दर एक भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या उप स्वास्थ्य केंद्र कार्यरत नहीं है. कई गाँवों में हालाँकि प्राथमिक विद्यालयों का प्रावधान ज़रूर है, लेकिन बुनियादी सुविधाओं व शिक्षकों की अनुपस्थिति में इन स्कूलों का होना या न होना एक ही बात है.
नीचे की तस्वीर में सुपौल जिले के बसंतपुर प्रखंड के छतौनी गाँव के लिए स्वीकृत एक प्राथमिक विद्यालय की दशा दिखाई गयी है, जिसमे सीमेंट के आठ खंभों के सिवाय कुछ भी नहीं हैं. इस पूरे गाँव से सिर्फ ८ बच्चे नाव से नदी पार कर बाहर के एक गाँव के विद्यालय में पढने जाते हैं. इलाके के कई गाँवों में यदी किसी को कोई बड़ी ज़रुरत अचानक आ पड़े तो फिर भगवान् ही मालिक है, अन्यथा सुपौल के ढोली गाँव के तारानंद सिंह के चार बच्चों को जन्म गाँवों दौरान तथा जोगिन्दर राम की पत्नी को प्रसव गाँवों दौरान अपनी जान गंवानी नहीं पड़ती. इस इलाके में शायद ही कोई ऐसा पंचायत होगा जहां हर साल सुरक्षित प्रसव की सुविधाओं के अभाव में कम से कम पाँच मौतें न होती हों! कई गाँव ऐसे भी हैं जहाँ पोषण की बुनियादी सेवाओं की अनुपलब्धता के कारण लोगों का एक असामान्य रूप से बड़ा अनुपात विकलांगता से प्रभावित है, जैसे किरतपुर प्रखंड का जमालपुर गाँव.
नीचे की तस्वीर में सुपौल जिले के बसंतपुर प्रखंड के छतौनी गाँव के लिए स्वीकृत एक प्राथमिक विद्यालय की दशा दिखाई गयी है, जिसमे सीमेंट के आठ खंभों के सिवाय कुछ भी नहीं हैं. इस पूरे गाँव से सिर्फ ८ बच्चे नाव से नदी पार कर बाहर के एक गाँव के विद्यालय में पढने जाते हैं. इलाके के कई गाँवों में यदी किसी को कोई बड़ी ज़रुरत अचानक आ पड़े तो फिर भगवान् ही मालिक है, अन्यथा सुपौल के ढोली गाँव के तारानंद सिंह के चार बच्चों को जन्म गाँवों दौरान तथा जोगिन्दर राम की पत्नी को प्रसव गाँवों दौरान अपनी जान गंवानी नहीं पड़ती. इस इलाके में शायद ही कोई ऐसा पंचायत होगा जहां हर साल सुरक्षित प्रसव की सुविधाओं के अभाव में कम से कम पाँच मौतें न होती हों! कई गाँव ऐसे भी हैं जहाँ पोषण की बुनियादी सेवाओं की अनुपलब्धता के कारण लोगों का एक असामान्य रूप से बड़ा अनुपात विकलांगता से प्रभावित है, जैसे किरतपुर प्रखंड का जमालपुर गाँव.
इसी प्रकार के कई मुद्दों को १५ वीं लोकसभा के चुनावों के ठीक पहले एक 'जनघोषणापत्र' के रूप में संकलित करने की कोशिश की गई. चुनावों से ठीक पूर्व तटबंधों के अन्दर के कई गाँवों में जनसभाएं की गईं जिनमें अलगाव के मुद्दों पर व्यापक चर्चा के अलावे चुनाव के प्रत्याशियों तक अपनी मांगों को पहुँचाने तथा उनका रूख समझने की तैयारी भी की गई. इन जनसभाओं के दौरान गाँवों के लोगों के द्वारा इस मुहिम को स्थानीय स्तर पर आगे ले जाने की दिशा में रणनीतियाँ भी तय की गईं. जनसभाओं के दौरान कई नए मुद्दों का भी पता चला. सुपौल के ढोली पंचायत के मुखिया व कोशी मुक्ति संघर्ष समिति के नेता श्री रामप्रसाद मंडल ने हाल के वर्षों में सुपौल में प्रारंभ किये गए जलविद्युत परियोजना द्वारा दिए गए मुआवजों के निर्धारण में पुनः तटबंधों के अन्दर के निवासियों की अवहेलना की बात उठाई. कई गाँवों के लोगों ने कोशी के तटबंधों के अन्दर बसे गाँवों की स्थिति को शाश्वत आपदा का दर्जा दिए जाने की मांग की. एक अन्य महत्वपूर्ण मांग तटबंध के अन्दर के संपूर्ण इलाके को एक अविभाजित लोकसभा क्षेत्र के रूप में निर्धारित करने की थी, ताकि तटबंध के अन्दर के लोगों के प्रति राजनैतिक दलों की दिलचस्पी व जवाबदेही बढ़ सके.
"पिछले साल कुसाहा में तटबंध के टूटने से तटबंधों के बाहर के कई इलाकों में पहली बार बाढ़ आया, जिसे तुंरत राष्ट्रीय आपदा का दर्जा दे दिया गया; जबकी हमारे ऊपर पिछले पचपन सालों से हर साल एक पूरी नदी बहा दी जाती है, लेकिन हमारे दर्दों की सुनवाई आजतक नहीं हुई!"
- लौकहा पलार पंचायत के एक जन प्रतिनिधि
आजादी के बाद देश में विद्युत उत्पादन और सिंचाई व्यवस्थाओं में बेहतरी के उद्देश्य से नदियों को बाँधने की जो मुहिम शुरू की गई, कोशी परियोजना उसी प्रक्रिया की एक कड़ी थी. पचास के दशक में भारत नेपाल सीमा पर कोशी नदी के जलप्रवाह के नियंत्रण के लिए कोशी बराज का निर्माण कार्य प्रारंभ किया गया तथा बाढ़ से इलाके की सुरक्षा के लिए नदी के दोनों ओर तटबंध बनाने की प्रक्रिया शुरू की गई थी. यह उल्लेखनीय है कि बराज के उद्घाटन के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति डा० राजेंद्र प्रसाद ने भरी सभा में इलाके के नागरिकों को देशहित में ज़्यादा से ज़्यादा योगदान देने का आग्रह किया था. बड़े स्तर पर विकास की सम्भावाओं को देखते हुए इलाके के निवासियों ने कोशी परियोजना का स्वागत किया था, भले ही इसकी कीमत उन्हें बाद के वर्षों में अपनी ज़मीन व जायदाद की क्षति से चुकानी पड़ी थी. यद्यपि एक तत्कालीन जनसभा में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने कोशी परियोजना के लिए अधिग्रहित ज़मीन के बदले ज़मीन, हर प्रभावित परिवार के लिए आवास तथा हर परिवार के एक सदस्य के लिए सरकारी नौकरी उपलब्ध कराये जाने का वादा किया था, दुर्भाग्य से, परियोजना के लगभग पॉँच दशकों के बाद भी इन वादों पर कारवाई नहीं हो सकी. बदले में जो नुक्सान लोगों को उठाना पड़ा उसकी भी कभी भरपाई नहीं हुई. स्पष्ट है कि कोशी के तटबंधों के बीच फँसे गाँवों का मुद्दा सिर्फ अलगाव का नहीं, बल्कि न्याय से वंचित किये जाने का भी है.
कोशी नदी का साम्यवाद - कई राजा बने फ़कीर
मरौना के हरि यादव, अनंत यादव; भपटियाही के रामेश्वर सिंह इत्यादि जैसे लोगों की गिनती किसी ज़माने में इलाके के बड़े ज़मींदारों तथा अति समृद्ध लोगों में होती थी. इनके कोठों में न सिर्फ भारी मात्रा में अनाज का संग्रहण होता था, वरन उनके खेतों में काम कर इलाके के अनेक मजदूर परिवारों का गुज़ारा भी चल जाता था.
मरौना के हरि यादव, अनंत यादव; भपटियाही के रामेश्वर सिंह इत्यादि जैसे लोगों की गिनती किसी ज़माने में इलाके के बड़े ज़मींदारों तथा अति समृद्ध लोगों में होती थी. इनके कोठों में न सिर्फ भारी मात्रा में अनाज का संग्रहण होता था, वरन उनके खेतों में काम कर इलाके के अनेक मजदूर परिवारों का गुज़ारा भी चल जाता था.
आज स्थिति यह है की इन समृद्ध परिवारों में अधिकांश कोशी की लहरों में अपनी संपत्ति खोकर फकीरों की ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर हैं. इनमे से कई अपने पूरे परिवार के साथ दूसरे शहरों का रूख कर चुके हैं जहाँ बड़ी मशक्कत के बाद उन्हें दो जून की रोटी नसीब होती है. प्रखंड के कई गांवों गाँवों लोग आज भी १९९३ में आये भीषण बाढ़ को याद कर काँप जाते हैं जिसने कई सम्पन्न किसानों की ज़मीन को बालू के ढेर में बदल दिया.
३० जनवरी १९८७ को बिहार सरकार के मंत्रिमंडल की एक विशेष बैठक में तत्कालीन कृषि मंत्री श्री लहटन चौधरी की अध्यक्षता में 'कोशी पीड़ित विकास प्राधिकार' के गठन का निर्णय लिया था, जिसका उद्देश्य कोशी परियोजना की वजह से प्रभावित तटबंध के अन्दर के लोगों के आर्थिक विकास व प्रभावी पुनर्वास की योजनायें बनाना था. इसी बैठक में राज्य मंत्रिमंडल ने कोशी के कुप्रभाव से तटबंधों के बीच के निवासियों के रक्षार्थ तथा उनके आर्थिक विकास के सम्बन्ध में १९ बिन्दुओं की एक महत्वपूर्ण कार्ययोजना भी बनाई थी, जिनमें कई महत्वपूर्ण नीतियाँ शामिल थीं, जैसे प्रभावित परिवारों को परियोजना से लाभान्वित जिलों में सरकारी नौकरियों में १५% का आरक्षण, हर ५ पंचायतो के लिए एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा हर पंचायत में एक उप स्वास्थ्य केंद्र की व्यवस्था, इत्यादि. तब से आजतक हालाँकि इस प्राधिकार में कई महत्वपूर्ण व्यक्ति अध्यक्ष बनकर आये और गए, लेकिन लोगों की ज़िन्दगी पर प्राधिकार की वजह से कोई बेहतरी न आ सकी. आज इलाके के गाँवों में इस प्राधिकार के ज़िक्र भर से लोग गालियाँ देने पर उतारू हो उठते हैं.
आज स्थिति यह है की कोशी तटबंधों के अन्दर स्थित लगभग ३८० गाँव चरम बदहाली की मिसाल बनकर रह गए हैं. ज़्यादातर गाँवों में बड़ी संख्या में अनुसूचित जातियों व अति पिछड़े वर्गों का निवास है, जिन्हें आये दिनों विभिन्न प्रकार के संघर्षों का सामना करना पड़ता है. वर्त्तमान में क्षेत्र के अधिकांश परिवारों का गुज़ारा प्रवासी मजदूरों की आमदनी पर चलता है. इलाके के अधिकांश परिवारों के पुरुष साल के अधिकांश महीने दिल्ली और पंजाब जैसे सुदूर के इलाकों में रोज़गार करते हुए गुज़ारते हैं तथा सिर्फ आपदाओं के समय ही घर वापस लौटते हैं. इलाके के अनेक परिवारों का गुज़ारा एकल महिलाओं, जिनमें विधवाएँ भी शामिल हैं, की आमदनी पर चलता है, जो कृषिकार्य से लेकर अलग अलग तरह की मज़दूरी के कार्य करती हैं. किरतपुर प्रखंड में ऐसे कई गाँव हैं जहाँ परिवारों की एक बड़ी संख्या एकल व विधवा महिलाओं के रोज़ाने के रोज़गार पर आश्रित है. इस इलाके के अनेक परिवारों के बच्चे भी रोज़गार की तलाश में अन्य राज्यों में जाते हैं, जिनमें से अनेकों का कुछ वर्षों के बाद अता पता नहीं रहता!
कोशी के नागरिकों के जनघोषणापत्र के संकलन की प्रक्रिया में कई स्वेच्छासेवी संस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा. प्रक्रिया का समन्वय प्रैक्सिस नामक एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के राज्यस्तरीय कार्यालय द्वारा किया गया तथा इसमें कोशी क्षेत्र में कार्यशील कई संस्थाओं ने विशेष भूमिकाएँ निभाईं. प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल संस्थाओं में मिथिला ग्राम विकास परिषद्, ग्राम भारती, समर्पण, सझिया समांग, महिला विकास आश्रम, चरखा तथा हेल्पेज इन्डिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही. इन संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने कोशी क्षेत्र में चुनावों के ठीक पहले तटबंधों के अन्दर के अलग अलग गाँवों के साथ सम्पर्क बनाते हुए दो सप्ताहों की नाव यात्रा भी की. संस्थाओं का यह नेटवर्क आनेवाले दिनों में तटबंधों के अन्दर के गाँवों के अलगाव के मुद्दे के प्रभावी समाधान की दिशा में यथावश्यक प्रयास करेगा.
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